बुधवार, 28 जुलाई 2010

हम कितना भी चाहें, लेकिन
वक्त कहाँ रूक जाया करता,
कुछ अनपेक्षित घट जाने से
जीवन कब थम जाया करता.
मानव हूँ ना! चलनशील हूँ!
दुख तो आते जाते रहते
दु:खों से घबराना कैसा,
जो नीयत है वो होगा ही
नियति से टकराना कैसा.
शिक्षित हूँ ना! मननशील हूँ!
खुशी मिले तो उन्हे बाँट दूँ
दु:ख अपने सारे मै पी लूँ,
जितनी साँसें शेष हैं मेरी
उतना जीवन जी भर जी लूँ.
नारी हूँ ना! सहनशील हूँ!
रूकने से कब काम चला है
जीवन मे अब बढना होगा,
खुद अपने से हिम्मत लेकर
बाधाओं से लडना होगा.
कर्मठ हूँ ना! कर्मशील हूँ!

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