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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
बुधवार, 28 जुलाई 2010
कि ज़िन्दगी एक कविता है
या, स्वयं एक कवयित्री !
जन्म से मरण तक
न जाने कितने उतार-चढ़ाव,
कितने हादसे, कितने ग़म, कितनी खुशियाँ !
कभी इच्छाओं की मौत
कभी मौत की इच्छा !
कभी ह्रदय को बहलाते क्षण
कभी दहलाते !
संदेह, विश्वास, भय, प्रेम,
वात्सल्य, करूणा, ममता आदि
रसों और भावों को
अपने में संजोए
ज़िन्दगी एक कविता ही तो है !
परन्तु कौन, किस पर,
कैसे लिखता है?
क्या स्वयं ज़िन्दगी ?
शायद हाँ !
शायद नहीं !
फिर बार-बार
सोचती हूँ पल प्रति पल
कि ज़िन्दगी एक कविता है
या स्वयं एक कवयित्री ?
प्रश्न है अब तक
वक्त कहाँ रूक जाया करता,
कुछ अनपेक्षित घट जाने से
जीवन कब थम जाया करता.
मानव हूँ ना! चलनशील हूँ!
दुख तो आते जाते रहते
दु:खों से घबराना कैसा,
जो नीयत है वो होगा ही
नियति से टकराना कैसा.
शिक्षित हूँ ना! मननशील हूँ!
खुशी मिले तो उन्हे बाँट दूँ
दु:ख अपने सारे मै पी लूँ,
जितनी साँसें शेष हैं मेरी
उतना जीवन जी भर जी लूँ.
नारी हूँ ना! सहनशील हूँ!
रूकने से कब काम चला है
जीवन मे अब बढना होगा,
खुद अपने से हिम्मत लेकर
बाधाओं से लडना होगा.
कर्मठ हूँ ना! कर्मशील हूँ!
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
एक आँख में सुख है
कौन अश्रु पोंछूँ मैं
कौन अश्रु रहने दूँ?
एक ओर सागर तल
एक ओर गंगाजल
कौन लहर रोकूँ मैं
कौन लहर बहने दूँ?
एक हाथ गरल भरे
एक हाथ अमृत झरे
मीरा-मन कर लूँ या
दंश उसे सहने दूँ?
कहीं दिखे संझवाती
कहीं सूर्य की पाती
कौन दिया द्वार धरूँ
किसे दूर रहने दूँ?
ईशान तट कुछ बोले
वंशीवट कुछ बोले
किस-किस को बरजूँ मैं
किस-किस को कहने दूँ?
मैं तन की अधिवासी
पर मन से संन्यासी
पर्णकुटी छोडूँ या
राजमहल ढहने दूँ? (बेबी)
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
हर साल 8 मार्च आता है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की रस्म अदा की जाती है. बड़े-बड़े मंचों से नारी उत्थान के संकल्प दोहराये जाते हैं.लेकिन नारी की दशा नहीं बदलती. दुनिया के किसी न किसी कोने में हर दिन कहीं वासना के भूखे भेड़िये किसी नारी की अस्मत पर डाका डालते है,तो कहीं गर्म-गोश्त की मंडी में नीलाम होने के लिए उसे मजबूर किया जाता है. कहीं वह चंद रूपयो के लिए आपने जिगर के मासूम टुकड़ों को बेचने के लिए मजबूर होती है,तो कहीं दहेज की लपटें उसे निगल लेती हैं.
कहने का आशय यह है कि सिर्फ़ नारी उत्थान का नारा देने भर से ही शोषण की चक्की में पिस रही नारी मुक्त नहीं होगी, इसके लिए ठोस और सार्थक पहल करनी होगी. बदलते समय के हिसाब से समाज की मानसिकता बदलनी होगी.नारी को समान अधिकारों की जरूरत है.जरूरत इस बात की भी है कि उसकी भावनाओ और अरमानो को भी सम्मान दिया जाए.
नारी मन की व्यथा यही है कि क्यों...आखिर क्यों अपने सपने देखने तथा प्रयास करके उन सपनों को हक़ीक़त में बदलने का अधिकार उसके पास क्यों नहीं है.आज के आधुनिक दौर में भी वह अपने जीवन के फैसले ख़ुद लेने के अधिकार से वंचित क्यों है. ऐसा क्यों होता कि जब वह अपने सपनों के आकाश में उड़ना चाहती है,तो रूढ़ियों की आड़ में उसके पर कतर दिए जाते हैं.उसे उन कामों की सजा क्यों दी जाती है,जिसमे उसका कोई दोष नहीं होता.
यदि कोई औरत विधवा हो जाती है,तो उसमें उसका कोई दोष नहीं होता,लेकिन परिवार,समाज उसके लिए नए मापदंड तय कर देता है.कोई विधुर पुरुष अपनी मनमर्जी के हिसाब से जीवन जी सकता है,लेकिन विधवा औरत ने यदि ढंग के कपड़े भी पहन लिए तो उस पर उंगलिया उठनी शुरु हो जाती हैं.किसी के साथ बलात्कार होता है,तो उसमें बलात्कार की शिकार बनी महिला का क्या दोष है.यह कैसी विडंबना है कि बलात्कारी मूँछों पर हाथ फेरकर अपनी मर्दानगी दिखता घूमता है और बलात्कार का शिकार बनी महिला या युवती को गली-गली मुँह छिपाकर जिल्लत झेलनी पड़ती है.
घर-संसार बसाना किसी युवती का सबसे अहम सपना होता है,इसलिये महिलाये बहुत मजबूरी में ही तलाक के लिए पहल करतीं हैं.लेकिन तलाक होते ही तलाकशुदा महिला के बारे में लोगों का नज़रिया बदल जाता है. उसकी मजबूरिया समझने के बजाय मजबूरी का फायदा उठाने वालों की संख्या बढ़ जाती है.यदा-कदा कुछ ऐसे लोग भी मिलते हैं जो तलाकशुदा या विधवा महिला को सार्वजनिक संपत्ति मान कर व्यवहार करते हैं.
क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि जिन घरों में महिलाये नौकरी या कारोबार कर रही हैं,घर के पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आर्थिक योगदान दे रही है,उन घरों में भी महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे नौकरी या कारोबार भी करती रहें और चूल्हा चक्की के काम में भी किसी तरह की कमी न आने पाने पाए. उलाहने- तानें दिए जाते हैं कि हमारे खानदान में औरतें अमुक-अमुक घरेलू कामों में दक्ष थी,लेकिन उस समय यह ध्यान नहीं दिया जाता कि उस समय महिलाये सिर्फ़ घरेलू काम ही करती थी,नौकरी या कारोबार नहीं करती थी.
नारी का उत्थान तभी संभव है,जब उसे समान अधिकार दिए जाए.नारी के प्रति देहवादी सोच को समूल रुप से नष्ट करना होगा.नारी सिर्फ़ देह तक ही सीमित नहीं है.उसके भी सीने में दिल धड़कता है, भावनाएँ स्पंदित होती हैं,आंखो में भविष्य के सपने तैरते हैं, आकाक्षाओं के बादल आते हैं. नारी की महिमा को समझते हुए उसकी गरिमा को सम्मान देना होगा.
नारी माँ के रुप में बच्चे को सिर्फ़ जन्म ही नहीं देती,अपने रक्त से सींच कर उसे जीवन भी देती है.बहन के रुप में दुलार देती है,तो बेटी के रुप में आपने बाबुल के घर में स्नेह की बरसात करती है. जीवनसंगिनी के रुप में जीवन में मधुरता के रस का संचार करती है.करुणा,दया,क्षमा,धैर्य आदि गुणों की प्रतीक है नारी.त्याग और ममता की मूर्ति है नारी.
भारतीय संस्कृति में नारी को शुरु से ही अहम दर्जा दिया गया है.इस देश की मान्यता रही है कि नारी भोग्या नहीं,पूज्या है.नारी को देवी का दर्जा देने वाले इस देश में जरूरत है एक बार फिर उन्हीं विचारों का प्रचार करने की.यह भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि यहाँ स्वयम्वर होते रहे हैं.नारियों को आपने जीवन के फैसले करने का अधिकार रहा है.उसी संस्कृति को ध्यान में रखते हुए नारिओ को समान अधिकार व अवसर देने होंगे,अपने विकास का रास्ता और मंज़िल वे ख़ुद तलाश लेगी
स्रियों की दशा का दुर्बल पक्ष - उस समय समाज में प्रचलित निम्न कुरीतियों के कारण स्रियों की दसा बहुत खराब हो गयी।
(१) बहु-विवाह की प्रथा - राजपूतों में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। प्रत्येक राजा के कई रानियाँ होती थी। वैश्यों में भी यह प्रथा प्रचलित थी।
डॉ. जी.एन. शर्मा के अनुसार ""यदि इस समय के कई नरेशों की पत्नियों का अनुमान लगाये, तो उनका औसत ९ से किसी कदर कम नहीं रहता।''
राजस्थान में प्रचलित इस कुरुति के कारण पारिवारिक जीवन कलेशमय हो जाता था। इसमें विधवाओं का भी बाहुल्य होता था।(२) कन्या वध - राजस्थान में कनाया वद्य की कुरुति भी प्रचलित थी। इस प्रथा के प्रचलन का प्रमुख कारण लड़की के विवाह की समस्याएँ एवं परिवार के सम्मान के नष्ट हो जाने की आशंका थी। विवाह के लिए योग्य दहेज की व्यवस्था न कर पाने के कारण कुछ राजपूत परिवारों ने कन्या वद्य की कुप्रथा को अपना लिया था। ब्रिटिश सरकार के सुझाव पर राजपूत राज्यों ने इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर इसे समाप्त करवाने में विशेष योगदान दिया।
(३) डाकन प्रथा - राजस्थान की भील व मीणा जातियों में डाकन प्रथा प्रचलित थी, जिसके अनुसार स्रियों पर डाकन होने का आरोप लगाकर उन्हें मार दिया जाता था। १९वीं सदी के उतरार्द्ध में राजपूत राज्यों में कानून द्वारा इसे समाप्त करने का प्रयत्न किया।
(४) औरतों एवं लड़कियों की क्रम विक्रय की प्रथा - मध्यकाल में राजस्थान में स्रियों एवं लड़कियों के क्रय-विक्रय की कुप्रथा प्रचलित थी। कुछ राज्यों द्वारा इस खरीद-फरोख्त पर विधिवत् रुप से कर वसूल कर लिया जाता था। खरीद-फरोख्त के कई कारण थे। राजपूत लोग अपनी पुत्री के विवाह में दहेज के साथ गोला-गोली (दास-दासी) देते थे, जिसके लिए वे औरतों एवं लड़कियों को खरीदते थे। इसके अतिरिक्त कुछ सामन्त व आर्थिक दृष्टि से समृद्ध लोग रखैलों के रुप में उन्हें खरीदतें थे। कई वेश्याएं लड़कियाँ खरीदती थी, ताकि वे उनसे अनैतिक पेशा करवा सके। १८४७ ईं में सभी राजपूत राज्यों में इस प्रकार के क्रय-विक्रय पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
(५) वेश्यावृत्ति - १३वीं शताब्दी से १९वीं शताब्दी तक राजस्थान में परम्परागत रुप से वेश्यावृत्ति की कुप्रथा प्रचलिथ रही, जो वेश्याएँ संगीत एवं नृत्य में निपुण होती थी, उन्हें राजकीय संरक्षण प्रदान किया जाता था और सरकारी कोष से उन्हें नियमित रुप से वृत्ति प्रदान की जाती थी। कई वेश्याएँ मंदिर में संगीत नृत्य करती थी, जिसके बदले में उन्हें पुरस्कार प्रदान किया जाता था। कई वेश्याएँ छोटी उम्र या किशोरवय की लड़कियों को खरीद लेती थी और उनसे अनैतिक धंधा करवाती थी। इस प्रथा को समाप्त करने अथवा नियंत्रित करने के लिए कीसी भी राज्य ने कोई भी कदम नहीं उठाया।
(६) बाल विवाह - मध्यकाल में राजस्थान में बाल-विवाह की कुप्रथा प्रचलित थी। हिन्दुओं को हमेशा मुसलमानो से इस बात का भय रहता था कि कहीं वे उनकी कन्याओं का उपहरण न कर लें। इस कारण वे लड़कियों को तरुणाई तक पहुंचने से पूर्व ही उनका विवाह कर देते थे। लगभग ६ या ७ वर्ष की आयु में ही कन्याओं का विवाह कर दिया जाता था। इससे जहाँ एक ओर स्रियाँ शिक्षा से वंचित रह जाती थी, वहीं उनकी स्थिति भी खराब होने लगी।
(७) पुत्री के जन्म को अशुभ मानना - मध्यकाल में पुत्री के जन्म को अशुभ माना जाता था। पुत्र के जन्म पर खुसी और पुत्री के जन्म पर दु:ख मनाया जाता था।
कर्नल टॉड ने लिका है ""वह पतन का दिन होता है, जब एक कन्या का जन्म होता है।''
(८) पर्दा प्रथा - मध्यकाल में राजस्थान में पर्द प्रथा प्रचलित थी। यह प्रथा उच्च वर्ग में थी, निम्न वर्ग में नहीं। मुख्य रुप से कृषक वर्ग की स्रियों में पर्दे का तनिक भी प्रचलन नहीं था। वे खेतों में काम करती थीं, कुँओं से पानी भरती थी तथा स्वतंत्रतापूर्वक मंदिरों में पूजा करने के लिए आ-जा सकती थी।
(९) विधवाओं की दशा - मध्यकालीन राजस्थान में विधवाओं की दशा बहुत दयनीय थी। उनका जीवन बड़ा यंत्रणामय होता था। विधवाएँ दूसरा विवाह नहीं कर सकती थी। वे या तो अपने मृत पति के साथ सती हो जाती थी या फिर सांसरिक सुख से मोह हटाकर अपना जीवन व्यतीत करती थी।
(१०) सती प्रथा - राजस्थान की कुप्रथाओं में सती प्रथा का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। पुराणों एवं धर्म निबन्धों में इस प्रथा का उल्लेख मिलता है। इस प्रथा के अनुसार मृत पति से साथ उसकी पत्नी जीवित जल जाती है। इस प्रथा को "सहगमन' भी कहते है। शिलालेखों एवं काव्य ग्रन्थों में अपने पति के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं भक्ति रखने वाली पत्नी के लिए भी सती शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार सती होने वाली महिला के कार्य को सत्यव्रत कहा गया है।
उत्तर प्राचीनकालीन तथा मध्यकालीन अभिलेखों तथा साहित्यिक ग्रन्थों में सती प्रथा के कुछ उदाहरण प्राप्त होते हैं। सेनापति गोपराज ने हूणों के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की थी। इस प्रकार उनकी पत्नी ५१० ई. में सती हो गई थी। राजपूत सामन्त राणुक की पत्नी संपल देवी उनके साथा ही सती हो गई थी। इस बात की पुष्टि घटियाला अभिलेख (१८१० ई.) से होती है। राजस्थान के प्रसिद्ध शासकों जैसे प्रताप, मालदेव, बीका, राजा जसवन्त सिंह, मुकुन्द सिंह, भीमसिंह एवं जयसिंह आदि के मरने पर उनके साथ उनकी कई रानियाँ, उप-पत्नियाँ, श्वासनें एवं दासियाँ सती हो गई थी। १६८० ई. में मेड़ता के युद्ध के बाद चित्तोड़ के तीन शासकों के अवसर पर साधारण परिवार की हजारों स्रियां सती हो गई थी। स्थानीय सती स्मारक स्तम्भों से इस बात की पुष्टि होती है।
प्रारम्भ में जब तक "सुहागन' का महत्तव था, विकल्प के रुप में यह प्रथा प्रचलित रही, परन्तु जब युद्ध की सम्भावनाएँ बढ़ने लगी, त्योंही पतियों की मृत्यु होने पर युद्धोतर यातनाओं से महिलाओं को बचाने के लिए सती प्रथा ही एक मात्र विकल्प बचा था। आक्रमणों के अवसरों पर बन्दी बनाने, जलील करने या धर्म परिवर्तन की सम्भावना से भयभीत होकर भी अनेक स्रियाँ सती प्रथा का अनुसरण करती थी। धीरे-धीरे स्वार्थी तथा प्रतिष्ठा संबंधी तत्वों ने भी इस प्रथा को बढ़ावा दिया।
राजघराने की महिलाएँ सिर पर पगड़ी पहनकर, हाथ में खं लेकर घोड़े या पालकी में बैठकर अपने पतियों की सवारी के साथ महलों के मुख्य द्वारों एवं प्रमुख मार्गों से गुजरती थी। वे मार्ग में आभूषणों को उतारकर बाँटती हुई जाती थी। अजीतोदेय में वर्णित है कि जब जसवन्त सिंह की मृत्यु की सूचना जोधपुर पहुँची तो उनकी पत्नियों ने स्नान करने के बाद अपने को फूलों तथा आभूषणों से सजाया तथा पालकी में बैठकर गाजे-बाजे व भजन मण्डियों के साथ मण्डोर के राजकीय शमशान की ओर प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने के बाद उन्होंने अपने पति की पगड़ियों को अपनी गोद में रखा व चिता में प्रवेश कर सती हो गई।
एक ओर रुढिवादी तत्वों ने सती प्रथा का समर्थन किया है, तो दूसरी ओर कुछ शास्रों, भाष्यों एवं जैन विद्वानों ने इस प्रथा को पाप तथा आत्महत्या की संज्ञा देते हुए इसका विरोध किया है। भाग्यवश राजाराम मोहनराय के प्रयासों से बैन्टिक ने एक कठोर कानून बनाकर सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया। जिसके कारण देश में तथा राजस्थान में इस कुप्रथा का अन्त हो गया। अब भावावेश में ही यदा-कदा सती होने के समाचार पढ़ने को मिलते है।
(११) जौहर प्रथा - सती प्रथा के समान ही एक और कुप्रथा राजस्थान में प्रचलित थी, जिसका नाम जौहर प्रथा था। जब शत्रु का आक्रमण होता था और स्रियों को अपने पति के लौटने की पुन: आशा नहीं रहती थी, और दुर्ग पर शत्रु के अधिकार की शत-प्रतिशत सम्भावना बन जाती थी, तब स्रियाँ सामूहिक रुप से अपने को अग्न में जलाकर भ कर देती थी। इसे जौहर प्रथा कहते थे। ऐसे अवसरों पर स्रियाँ, बच्चे व बूढ़े अपने आपको तथा दुर्ग की सम्पूर्ण सम्पत्ति को अग्नि में डालकर भ हो जाते थे। धर्म तथा आत्म सम्मान की रक्षा के लिए इस प्रकार का कदम उठाया जाता था, ताकि शत्रु द्वारा बन्दी बनाए जाने पर उन्हें अनैतिक तथा अधार्मिक करने के लिए विवश न होना पड़े। ऐसे कार्य से वे देश एवं स्वजनों के प्रति भक्ति अनुप्राणित करते थे और युद्ध में लड़ने वाले योद्धा अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए शौर्य एवं बलिदान की भावना से प्रेरित होकर शत्रुओं पर टूट पड़ते थे।
समसामयिक रचनाओं में जौहर प्रथा का बहुत अच्छा वर्णन मिलता है। अमीर खुसरों ने अपने ग्रन्थ "तारीख-ए-अलाई' में लिखा है कि जब अलाउद्दीन ने १३०१ ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण किया व दुर्ग को बचाने का विकल्प न रहा तो दुर्ग का राजा अपने वीर योद्धाओं के साथ किले का द्वार खोलकर शत्रुदल पर टूप पड़ा। और इसके पूर्व ही वहाँ की वीराँगनाएं सामूहिक रुप से अग्नि में कूदकर स्वाह हो गयी। पधनाभ ने जालौर के आक्रमण के समय वहाँ के जौहर का रोमांचित वर्मन करते हुए लिखा है कि रमणियों की अग्नि में दी गयी आहुतियों ने योद्धाओं को निश्चित कर दिया और वे शत्रु दल पर टूट पड़े। १३०३, १५३५ एवं १५६८ ई. के चित्तौड़ के तीनों शासकों के अवसर पर पद्मिनी, कर्मवती एवं पत्ता तथा कल्ला की पत्नयों की जौहर कथा इतिहास जगत में प्रसिद्ध है। अकबर के समय तो जौहर ने इतना भीषण रुप धारण कर लिया था कि चित्तौड़ का प्रत्येक घर तथा हवेली जौहर स्थल बन गयी थी। परिस्थितियोंवश ये प्रथाएँ प्रारम्भ हो गयी थी, किन्तु सती प्रथा या जौहर प्रथा को मानवीय कसौटी पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
(१२) शिक्षा - मध्यकाल में स्रियों की शिक्षा की उचित व्यवस्था नहीं थी, मात्र उच्च वर्ग की पुत्रियों के लिए ही शिक्षा की व्यवस्था थी। निम्न वर्ग की लड़कियों की शिक्षा की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता था।
निष्कर्ष - इस प्रकार हमें मध्यकालीन राजस्थान में स्रियों की स्थिति का दोहरा स्वरुप दिखाई देता है। व्यक्तिगत रुप से परिवार में नारियों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था, परन्तु सामाजिक दृष्टि से विभिन्न कुप्रथाओं के कारण स्रियों की दशा बहुत खराब थी, किन्तु यदि हम तत्कालीन समय के अन्य राज्य की स्रियों से राजस्थान की स्रियों की तुलना करें, तो पता चलता है कि मध्यकाल में राजस्थान में स्रियों की स्थिति निश्चित रुप से बहुत अच्छी थी। वे वीरांगनाएँ थी जो अपने पति के लिए आदर्श थीं। नि:संदेह उनके त्याग एवं बलिदान राजस्थान इतिहास की कभी न मिटने वाली गौरव गाथाओं में रहेगें।
बुधवार, 14 जुलाई 2010
नारियां ये मानने से इतना घबराती क्यूँ हैं ?? विनम्र होना एक बात हैं लेकिन उस विनम्रता का क्या फायदा जो आप को अपने को दुसरो से श्रेष्ठ ना समझने दे । श्रेष्ठ होने मे और और घमंडी होने मे बहुत अंतर हैं । आप कि शेष्ठ्ता आप को हमेशा ऊपर जाने को प्ररित करती हैं और आप के अन्दर एक "ताकत " बनती हैं । आप कि यही ताकत आप को औरो से अलग करती हैं और उनसे बेहतर बनाती हैं । अपने को बेहतर मानने मे इतना संकोच क्यूँ । जब तक आप अपने को श्रेष्ठ नहीं मानेगे तब तक क्या दूसरे आप को श्रेष्ठ मानेगे । अगर कोई आप को कहता हैं " आप दुसरो से बेहतर हैं " तो उसको धन्यवाद कह कर आप और बेहतर बनने कि कोशिश कर सकते हैं { अहम् को आड़े ना आने दे } ।
आज के समय मे श्रेष्ठ और बेहतर होना सफलता कि कुंजी हैं । Nothing succeeds like success
को जो लोग समझ लेते हैं वो हर जलजले , तूफ़ान , सुनामी से ऊपर उठ जाते हैं और अपनी श्रेष्ठ्ता को बार बार अपने आप को ही सिद्ध करते हैं ।
पढ़ा था
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दन्त हीन विष रहित विनीत सरल हो
नास्ति मातृसमा ऋणं, नास्ति मातृसमा प्रिय।
ऋग्वेद में नववधू को "साम्राज्ञी श्वसुरे भव" का आशीर्वाद मिलता है। तुम श्वसुर के घर की साम्राज्ञी होओ।
भार्या श्रेष्ठतम सखा। पत्नी को मोक्ष का हेतु माना गया। कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के बिना पूर्ण एवं सम्पन्न नहीं हो सकता था। श्रीराम ने भी सीताजी की स्वर्ण प्रतिमा बनवाकर यज्ञ पूरा करवाया था। शास्त्रों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि पत्नी का अपमान असहनीय था।
समाज में पुत्र का महत्व था पर कन्या की भी महत्ता खूब थी। स्वप्नवासवदत्तम् में राजा प्रणेत पुत्री के जन्म पर प्रसन्न होकर महारानी से मिलने जाते हैं और अपना आह्लाद यह कहकर प्रकट करते हैं कि कन्या पितृत्वं बहुवन्दनीयम्।
मनु ने भी भगिनी के लिए सम्पत्ति के चौथे भाग का विधान किया है। प्रक्षेपों या सामाजिक कुण्ठा के कारण मनु को लेकर कई विवाद खड़े किए गए, वरना यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता का उदात्त विश्व-आदर्श मनु की ही देन है। सर्वाधिक विवादास्पद समझी जाने वाली बात भी व्यर्थ ही मुद्दा बना दी गयी। पिता बचपन में कन्या का रक्षण करता है। भर्ता यौवन में..। यहाँ भी रक्ष धातु संरक्षण के अर्थ में है। ऐसे विधान किए जाने से ही समाज के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी निभाने की ओर पुरुषों का नियमन होता है, अन्यथा स्त्री काम, भोग-विलास से ज्यादा कुछ नहीं रहेगी।
वेदों की ऋचाएँ ब्राहृज्ञान के कारण ही संभव हैं। यह ज्ञान, ज्ञान का चरम स्वरूप है। अकेले ऋग्वेद में ही 27 ब्राहृवादिनियों का उल्लेख मिलता है। अदिति, जुहू, इन्द्राणी, सरमा, रात्रि, सूर्या, उर्वशी, अपाला, घोषा, गोधा, लोपामुद्रा, शाश्वती, रोमशा, सुलभा, विदुरा विश्ववारा आदि।
उपनिषद् काल में भी गार्गी, मैत्रेयी का उल्लेख मिलता है। यहाँ तक कि वाचक्नवी गार्गी शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य तक को पीछे छोड़ देती है। उन्हें भी इस युक्ति का सहारा लेना पड़ता है कि तुम बहस मत करो वरना तुम्हारे सिर का पतन हो जायेगा।
पुराणों में मदालसा, देवाहुति, शैव्या, सुनीति, भामिनी आदि का उल्लेख मिलता है। रामायण में अनसुईया, शबरी, स्वयँप्रभा का उल्लेख मिलता है। सीता जी स्वयं अतीव विदुषी होने के साथ ही धुनष विद्या जैसी तकनीकी शिक्षा में भी दक्ष थीं। पुष्कर में शिलालेख में सीता जी को लव-कुश को धनुर्विद्या की शिक्षा देते हुए दिखाया गया है।
भवभूति ने उत्तररामचरितम् में सीता जी द्वारा मयूर नचाने का वर्णन किया है। ताली पर ताल देकर सीता जी मयूर नर्तन कराया करती थीं। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी शकुन्तला आगे बढ़कर अपनी सखियों की मदद से राजा दुष्यन्त को प्रेमपत्र लिखती है और उसमें अपनी मन:स्थिति का बहुत गूढ़ निरूपण करती है। उससे स्पष्ट होता है कि उसे मनोविज्ञान का भली भांति ज्ञान था। महाकवि भास की नायिका वासवदत्ता कला के साथ-साथ राजनीति और कूटनीति में भी निष्णात थी। उसी के ज्ञान के आधार पर वह पति को पुन: राज्य प्राप्त करवाने के लिए सम्पन्न राज्य के राजा दर्शक की भगिनी पद्मावती के साथ अपने पति के विवाह के लिए तैयार हो जाती है।
प्राचीनकाल में सहशिक्षा भी व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होती है। लव-कुश के साथ आत्रेयी पढ़ती थी। भवभूति ने भी मालती माधव में भूरिवसू तथा देवरात के साथ कामन्दकी का उल्लेख किया है, जो राजनीति और कूटनीति के ज्ञान में कहीं भी आर्य चाणक्य से कमतर नहीं दिखती। इन सब उदाहरणों से लगता है कि स्त्रियों को समानता तथा स्वतंत्रता का सुख उपलब्ध था।
बच्चों की शिक्षा औपचारिक रूप से ही नहीं, बल्कि अनौपचारिक रूप से अनवरत चलती रहती थी। वह शिक्षा संस्कारों की शिक्षा थी, जो जीवन भर काम आती है। कण्व ऋषि गृहस्थ नहीं हैं फिर भी बहुत मातृ ह्मदय से शकुन्तला का पालन-पोषण करते हैं। उसे पौधों और पक्षियों के पोषण का दायित्व देकर बचपन से ही जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाते हैं। शकुन्तला प्रकृति के कण-कण में मानवीय चेतना के दर्शन करती है। शकुन्तला भी अपने पुत्र सर्वदमन को सिंह के दांत गिनना बचपन में ही सिखा देती है।
परित्याग किये जाने पर शकुन्तला राजा दुष्यन्त को भरे दरबार में फटकार लगाती हुई "अनार्य" तक कह देती है। इससे बड़ी गाली उस युग में और कुछ हो नहीं सकती।
साभार-पाञ्चजन्य से