गुरुवार, 16 जून 2011
रविवार, 29 मई 2011
एक बार एक नास्तिक व्यक्ति से मेरी मुलाकत हुई, उसने कहा कि वह किसी भी ईश्वरिय शक्ति में विश्वास नहीं करता। मैंने भी उसकी बात पर अपनी सहमती जताते हुए उससे पुछा कि आप अपनी माँ को तो मान करते ही होंगे। उन्होंने जबाब में कहा , ये भी कोई पुछने की बात है। जिस माँ ने मुझे नो महिने पेट में रख कर अपने खून से मेरा भरण-पोषण किया, फिर आपने दूध से मुझे पाला उसे कैसे भूला जा सकता है। उसने बड़े गर्व से यह भी बताया कि वे रोजना माँ की पूजा करते और उनसे आशीर्वाद भी लेते हैं। तब मैंने बात को थोड़ा और आगे बढ़या उनसे पुछा कि जो माँ आपको नो माह अपने गर्व में रखती है उसके प्रति सम्मान होना गलत तो नहीं है।
उनका जबाब था - बिलकुल भी नहीं। बल्की जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता वो समाज में रहने योग्य नहीं है।
इस नास्तिक विचारधारा को मानने वाले व्यक्ति के मन में माँ के प्रति श्रद्धा देखकर मेरे मन में भी एक आशा के दीप जल उठा, सोचा क्यों न आज इस नास्तिक विचार को बदल डालूँ।
मेरे मन में सवाल यह था कि इसे कहना क्या होगा जिससे इसके नास्तिक विचारों को बदला जा सके। वह भी एक ही पल में।
क्या आपके पास कोई सूझाव है जिसे सुनने से इस नास्तिक व्यक्ति के विचार को एक ही पल में बदला जा सके। कहने का अर्थ है कि वो आपकी बात को सुनकर ईश्वर में विश्वास करने लगे।
उनका जबाब था - बिलकुल भी नहीं। बल्की जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता वो समाज में रहने योग्य नहीं है।
इस नास्तिक विचारधारा को मानने वाले व्यक्ति के मन में माँ के प्रति श्रद्धा देखकर मेरे मन में भी एक आशा के दीप जल उठा, सोचा क्यों न आज इस नास्तिक विचार को बदल डालूँ।
मेरे मन में सवाल यह था कि इसे कहना क्या होगा जिससे इसके नास्तिक विचारों को बदला जा सके। वह भी एक ही पल में।
क्या आपके पास कोई सूझाव है जिसे सुनने से इस नास्तिक व्यक्ति के विचार को एक ही पल में बदला जा सके। कहने का अर्थ है कि वो आपकी बात को सुनकर ईश्वर में विश्वास करने लगे।
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
सोमवार, 4 अप्रैल 2011
मै नारी हूँ ..
अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
मै नारी हूँ ....
अस्मिता को बचाते हुए
धरती में समा जाती हूँ
माँ- बहन इन शब्दों में
ये कैसा कटुता
है भर गया
इन शब्दों में अपशब्दों के
बोझ ढोते जाती हूँ
पत्नी-बहू के रिश्तो में
उलझती चली जाती हूँ
अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
अपने गर्भ से जिस संतान को
मैंने है जन्म दिया
अपनी इच्छाओं की आहुति देकर
जिसकी कामनाओं को पूर्ण किया
आज उस संतान के समक्ष
विवश हुई जाती हूँ
अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
नारी हूँ पर अबला नही
सृष्टि की जननी हूँ मै
पर इस मन का क्या करूँ
अपने से उत्पन्न सृष्टि के सम्मुख
अस्तित्व छोडती जाती हूँ
अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
मै नारी हूँ ....
अस्मिता को बचाते हुए
धरती में समा जाती हूँ
माँ- बहन इन शब्दों में
ये कैसा कटुता
है भर गया
इन शब्दों में अपशब्दों के
बोझ ढोते जाती हूँ
पत्नी-बहू के रिश्तो में
उलझती चली जाती हूँ
अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
अपने गर्भ से जिस संतान को
मैंने है जन्म दिया
अपनी इच्छाओं की आहुति देकर
जिसकी कामनाओं को पूर्ण किया
आज उस संतान के समक्ष
विवश हुई जाती हूँ
अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ
नारी हूँ पर अबला नही
सृष्टि की जननी हूँ मै
पर इस मन का क्या करूँ
अपने से उत्पन्न सृष्टि के सम्मुख
अस्तित्व छोडती जाती हूँ
रविवार, 27 मार्च 2011
लड़की,
बाहर आओ
तोड़ के सिमटते हुये दायरे को
छत के कोने पर खड़े हो फैलाओ बाहों को
महसूस करो हवा में तैरने के लिये
तुम कभी लगा सकती हो छलाँग
अनंत में तोड़ते हुये सारे बंधनों को
हथेलियों में,
क़ैद करो हवा में घुली हुई नमी को
और मुरझाते हुये सपनों को ताज़ा दम कर लो
या गूँथो कोई नया संकल्प
सुनो
हवा में गूँजते हुये संगीत को
और चुरा कर रखो किसी टुकड़े को अपने अंदर
वहीं, जहाँ तुम रखती हो अपनी सिसकियाँ सहेज कर
और छाने दो संगीत का खु़मार सिसकियों पर
देखो ठहरे हुये
पराग कणों को तुम्हारी चेहरे पर
और पनाह दो आँखों के नीचे बन आये काले दायरो में/
या बुनी जा रही झुर्रीयों में
और फूलने दो नव-पल्लव विषाद रेखाओं के बीच
महसूस करो,
हवा में पल रही आग को
और उतार लो तपन को अपने सीने में
जहाँ रह-रह कर उमड़ते हैं ज्वार
और लौट आते हैं अलकों की सीमा से टकराकर
लड़की,
बाहर आओ, उठ खड़ी होओ
दीवार के बाद पीछे कोई जगह नहीं होती
और यदि कोने में हो तो कुछ और नहीं हो सकता
कब तक घुटनों पर रख सकोगी सिर/
आँसुओं का सैलाब बहाओगी/
अँधेरे में सिमटती रोशनी सी
कब तक लड़ सकोगी अकेली फड़फ़डाते हुये
लड़की,
बाहर आ
बाहर आओ
तोड़ के सिमटते हुये दायरे को
छत के कोने पर खड़े हो फैलाओ बाहों को
महसूस करो हवा में तैरने के लिये
तुम कभी लगा सकती हो छलाँग
अनंत में तोड़ते हुये सारे बंधनों को
हथेलियों में,
क़ैद करो हवा में घुली हुई नमी को
और मुरझाते हुये सपनों को ताज़ा दम कर लो
या गूँथो कोई नया संकल्प
सुनो
हवा में गूँजते हुये संगीत को
और चुरा कर रखो किसी टुकड़े को अपने अंदर
वहीं, जहाँ तुम रखती हो अपनी सिसकियाँ सहेज कर
और छाने दो संगीत का खु़मार सिसकियों पर
देखो ठहरे हुये
पराग कणों को तुम्हारी चेहरे पर
और पनाह दो आँखों के नीचे बन आये काले दायरो में/
या बुनी जा रही झुर्रीयों में
और फूलने दो नव-पल्लव विषाद रेखाओं के बीच
महसूस करो,
हवा में पल रही आग को
और उतार लो तपन को अपने सीने में
जहाँ रह-रह कर उमड़ते हैं ज्वार
और लौट आते हैं अलकों की सीमा से टकराकर
लड़की,
बाहर आओ, उठ खड़ी होओ
दीवार के बाद पीछे कोई जगह नहीं होती
और यदि कोने में हो तो कुछ और नहीं हो सकता
कब तक घुटनों पर रख सकोगी सिर/
आँसुओं का सैलाब बहाओगी/
अँधेरे में सिमटती रोशनी सी
कब तक लड़ सकोगी अकेली फड़फ़डाते हुये
लड़की,
बाहर आ
बुधवार, 29 सितंबर 2010
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
गम भरी जिन्दगी में अगर एक ख़ुशी भी मिल जाये ,
लगता है जैसे जिन्दगी ने थोडी सी करवट बदल ली..
दोस्त अगर दोस्ती निभाने के अलावा,
अगर थोडा सा प्यार कर ले ..
तो लगता है जिन्दगी ने थोडी सी करवट बदल ली..
हम तो चाहते है पूरी दुनिया को दिल से,
कोई हमें भी चाहेगा ,
तो लगेगा जैसे जिन्दगी ने थोडी सी करवट बदल ली..
हम तो उन्हें याद करते है हर पल..
अगर उन्हें कभी हमारी याद आ जाये ,
तो समजेंगे की जिन्दगी ने थोडी सी करवट बदल ली.
लगता है जैसे जिन्दगी ने थोडी सी करवट बदल ली..
दोस्त अगर दोस्ती निभाने के अलावा,
अगर थोडा सा प्यार कर ले ..
तो लगता है जिन्दगी ने थोडी सी करवट बदल ली..
हम तो चाहते है पूरी दुनिया को दिल से,
कोई हमें भी चाहेगा ,
तो लगेगा जैसे जिन्दगी ने थोडी सी करवट बदल ली..
हम तो उन्हें याद करते है हर पल..
अगर उन्हें कभी हमारी याद आ जाये ,
तो समजेंगे की जिन्दगी ने थोडी सी करवट बदल ली.
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